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बदहाली में जीने को मजबूर है जान जोखिम में डाल कर अवैध उत्खनन करने वाले ढीबरा मजदूर

  • जान पर हमेशा बनी रहती है शामत, परिवार का भरन पोषण कर पाना होता है मुश्किल
  • 150-200 फीट अंदर गहराई में जा कर मजदूर निकालते है माइका
  • सरकार और प्रशासन के पास नही है मजदूरों के इस हाल का जवाब
  • व्यापारियों को हो रहा फायदा, सरकार को हो रहा नुकसान

रिंकेश कुमार/निशांत बरनवाल

गिरिडीह। जिले के गावां तीसरी वन प्रक्षेत्र में माइका का अकुत भंडार है और इसे निकालने के लिए हजारों मजदूर पहाड़ों का सीना चीर 150-200 फीट अंदर गहराई में जा कर खनन करते हैं। बावजूद इसके वे बदहाली में जीने को मजबूर है। हालांकि इस धंधे में माइका कारोबारियों को बड़ा लाभ पहुंचता है मगर मजदूरों को उनकी मजदूरी व सरकार को राजस्व नहीं मिलता है। जिस कारण माइका के कारोबार करने वाले लोग ओर अमीर होते जा रहे है वहीं मौत के सुरंग में काम करने वाले मजदूरों को जीवन यापन करना भी दुर्लभ होता जा रहा है।

तिसरी-गावां के हजारों मजदूर का है रोजगार

अगर मजदूरों से उनकी मन की बात की बात करें तो उनका कहना है कि साहब भूखे पेट और परिवार-बच्चों की ख्वांहिशे हमें इन सुरंगों तक ले जाती है। खनन करने के बाद मिलने वाली मजदूरी से उनकी ख्वांहिशे तो पूरी नहीं हो पाती है, लेकिन उनके परिवार का किसी तरह भरन पोषण हो जाता है। पहाड़ों में माइका अब गहराई में मिलता है और इसमें जोखिम होने के बाद भी साधन के अभाव में उतरते है। अगर सरकार माइका को वैध कर देती और साधन मिल जाता तो आज हमारें मजदूरी भी अधिक मिलता।

चोरी छुपे किए जाते है उपकरण का प्रयोग

सूत्रों की अगर माने तो मजदूरों को खदान मालिक द्वारा चोरी छुपे मशीन व खनन के लिए कई बार उपकरणों का भी सहयोग दिया जाता है। मगर वन कर्मियों के दबाव व डर के कारण वे पूरी छूट के साथ खनन के लिए हर संभव सहायता नहीं कर पाते है। वैसे इसमें फायदा तो खदान संचालकों का ही है। कम से कम उनके खर्चे तो बच जाते है और कमाई की प्रतिशत बढ़ जाती है।

विस्फोटक व जेसीबी मशीन के प्रयोग से वन होते है नष्ट

सुविधा और साधन के अभाव में और खर्चे में कमी लाने के लिए खनन में कई बार जेसीबी मशीन व विस्फोटक का प्रयोग किया जाता है। जिसका नतीजा यह होता है कि कई गज जंगल उजड़ जाते है और इतना ही नहीं इसके कारण कई मजदूरों को अपने जान से भी हाथ धोना पड़ता है। विगत कुछ दिन पूर्व भी तिसरी के खिड़किया मोड़ में भी घर में विस्फोटक रखने के कारण एक ही परिवार के चार सदस्यों की जान चली गई थी। जिसके बाद प्रशासन ने गंभीरता दिखाते हुए विस्फोटक के कारोबारी को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया था।
लोगों की अगर माने तो अगर इन क्षेत्रों में खनन के लिए सरकार लाइसेंस दे दे तो पूरी व्यवस्था और सावधानी के साथ खनन का कार्य हो सकेगा और सैकड़ों की जान बच सकेगी।

कारवाई होने के बाद भी बंद नहीं होता अवैध उत्खनन

वन विभाग व पुलिस बलों द्वारा बार-बार कार्यवाही होने के बाद भी इन क्षेत्रों में अवैध उत्खनन पर अंकुश नहीं लगाया जा सकता है क्यूंकि सर्वप्रथम तो वन कर्मियों की कमी है और इसके साथ ही उनके पास प्रयाप्त साधन नहीं है। इसके अलावा जंगली क्षेत्र होने के कारण इन खदानों तक पहुंचना बहुत दुर्लभ है। इसके अलावा वन विभाग व थाना प्रशासन के कुछ कर्मियों के मिली भगत होने के कारण भी छापेमारी से पूर्व सूचना माइका माफियाओं को मिल जाती है जिससे यह हमेशा विफल साबित होता है।

पांच वर्षों में सैकड़ों मजदूर हो चुके है जमींदोज

गावां तिसरी के विभिन्न अवैध माइका खदानों में भूधंसान होने पर मजदूरों का मरना अब आम बात होती जा रही है। प्रशासन इसे गंभीरता से तो लेती है, लेकिन हफ्ते दस दिन में मामले का ठंडा पड़ जाने के बाद भूल जाती है। जिससे पांच वर्षों के अंदर अब तक सैकड़ों से अधिक लोग मौत के नींद सो चुके है। इन मौतों में कुछ के शव उनके परिजनों को तो मिले है मगर बहुत से ऐसी भी स्थिति हुई है कि उनका शव देखने के लिए भी उनके परिवारों को तरसना पड़ा है। इनमे से अधिकांश मौतों के बारे में न तो प्रशासन को जानकारी मिल पाती है और न ही कोई सरकारी आंकड़े में दर्ज हो पाता है।

मुआवजे और डर दिखा कर छुपाया जाता है मौत का आंकड़ा

इसका मुख्य कारण यह होता है कि खदान संचालकों द्वारा मृतक के परिजनों को मुआवजा दे कर और ना मानने की स्थिति में डरा धमका कर मुंह बंद करवा दिया जा रहा है। ऐसे में वर्तमान समय में हो रही मौत और खनन के दौरान खतरे से मजदूर अनजान है और अगर उन्हें जानकारी होती भी है तो भी उन्हें मुआवजे से मिलने वाली पैसे मंे अपने परिवार के लिए भलाई दिखाई देता है।

सवाल है कई, जवाब एक भी नहीं

अगर पूरे वाक्या और हुई घटनाओं का गौर से मंथन किया जाए तो मन में सैकड़ों सवाल खड़े होने लगते है कि आखिर इन सबका जिम्मेवार कोन है? सरकार को राजस्व की हानि के बावजूद इसे क्यूं वैध नहीं किया जाता है? आखिर कब तक खदान में मजदूर अपने परिवार के भरन पोषण के लिए मौत के भेंट चढ़ते रहेंगे? मजदूरों का सपना किस प्रकार साकार हो सकेगा? क्या कभी माइका का कारोबार करने वाले लोगों के जैसा मजदूरों को भी माइका में अधिक मुनाफा हो सकेगा? इस प्रकार से जंगल उजाड़ने पर रोक नहीं लगाया गया तो आखिर कब तक प्राकृतिक संपदा बची रह सकेगी? ऐसे कई सवाल है, लेकिन इन सवालों का जवाब न तो सरकार के पास है और न ही प्रशासन के पास।

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