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पोषण वाटिका के सहारे कुपोषण के खिलाफ जंग

  • पोषण परियोजना ने जगाई आशा की किरण
  • अभिव्यक्ति फाउंडेशन और वेल्टहुंगरहिल्फे के सहयोग से चल रही परियोजना

गिरिडीह । कुपोषण की बात करें तो पूरी दुनिया के लिए ये एक ऐसा अभिशाप है जिसने अब तक ना जाने कितने नौनिहालों की या तो जिंदगी लील ली है या फिर उनकी जिदगियों को नारकीय बना डाला है। यूनिसेफ द्वारा जारी नयी रिपोर्ट ‘द स्टेट ऑफ द वर्ल्ड्स चिल्ड्रेन 2019‘ के अनुसार पूरी दुनिया में पांच वर्ष से कम उम्र का हर तीसरा बच्चा कुपोषण का शिकार है। यानि दुनिया भर में करीब 70 करोड़ बच्चे कुपोषित हैं। भारत, और भारत में भी झारखंड के परिप्रेक्ष्य में बात करें तो यहां के हालात तो और भी डराने वाले हैं। आंकड़ों की मानें तो देश के सबसे ज्यादा कुपोषित 5 राज्यों में से झारखंड भी एक है। पर ऐसा नहीं है कि इन बिगड़े हालातों से उबरने का प्रयास नहीं हो रहा है। ऐसे ही एक प्रयास से रू-ब-रू होने के लिए आपको अपने साथ एक छोटे से सफर पर ले चलते हैं।

9 पंचायतों के करीब 40 गांवों में चलाया जा रहा है ‘पोषण‘ कार्यक्रम

इस सफर की शुरूआत होती है झारखंड के गिरिडीह जिले के बेंगाबाद और गांडेय प्रखंडों से। यहां स्वयंसेवी संस्था अभिव्यक्ति फाउंडेशन द्वारा ‘वेल्टहुंगरहिल्फे‘ के सहयोग से 9 पंचायतों के करीब 40 गांवों में ‘पोषण‘ कार्यक्रम चलाया जा रहा है। इसी कार्यक्रम से जुड़ा एक आदिवासी गांव है – केन्दुवाटांड़। गांडेय प्रखंड के बरमसिया पंचायत का ये सुदूरवर्ती गांव बिल्कुल जंगलों के बीच बसा है। इस गांव तक जाने के लिए एक पतली सी पक्की सड़क तो जाती है, पर घने जंगलों के बीच से गुजरने का एहसास किसी ‘एडवेंचर‘ से कम नहीं। बहरहाल, इसी एडवेंचर का एहसास करते हुए हम जब इस गांव में पहुंचे तो यहां हमारी मुलाकात गांव की कुछ महिलाओं से हुई, जो अपने छोटे – छोटे बच्चों के साथ एक मकान के बाहर बैठी हुई थीं। थोड़ी औपचारिकता के बाद बात-चीत की शुरूआत हुई।

गांव में नहीं कोई आंगनबाड़ी केन्द्र

शुरूआत में ही जो सबसे पहली बात पता चली वो ये थी कि इस गांव में कोई आंगनबाड़ी केंद्र नहीं है। जो सबसे नजदीकी आंगनबाड़ी केन्द्र है, वहां जाने के लिए गांव के लोगों को एक पहाड़ी नाले को पार करना पड़ता है, इसलिए अधिकांश महिलाएं केन्द्र की सुविधाओं का लाभ नहीं उठा पातीं। इन महिलाओं ने ही हमें बताया कि वर्ष 2019 में संस्था ने जब कार्यक्रमों की शुरूआत की तो उससे पहले उन्हें पोषण या कुपोषण के बारे में कुछ भी नहीं पता था। पर जब उनके बच्चों की जांच की गई तो पता चला कि इस गांव के 15 बच्चे कुपोषित थे, और उनमें भी अधिकांश ‘रेड जोन‘ में ही थे यानि अत्यंत कुपोषित थे। इन बच्चों और उनकी माताओं को लेकर वर्ष 2019 में ही 15 दिवसीय पोषण शिविर लगाया गया, जिसमें ना सिर्फ माताओं को पोषण को लेकर तमाम तरह की जानकारियां दी गईं, बल्कि उन्हें ये भी बताया गया कि कैसे खाने में ‘तिरंगा भोजन‘ को शामिल कर वे अपने बच्चों को कुपोषण के अभिशाप से छुटकारा दिला सकती हैं।

पोषण शिविर में शामिल होने के बाद बदलने लगे खान-पान और तौर तरीके

इस अनूठे सफर में हम आपकी मुलाकात करवाते हैं प्रमिला मरांडी से। प्रमिला मरांडी, जिन्हें ये पता भी नहीं था कि उनके आस-पास, गांव-घर में उपजने वाली शाक-सब्जी और अनाज ही कैसे पोषक तत्वों से भरपूर हैं, बशर्ते उनकी खेती और उनका इस्तेमाल सही और सार्थक तरीके से किया जाए। पोषण शिविर में शामिल होने के बाद खाने-पीने की उनकी आदतों और तौर-तरीकों में भी काफी बदलाव आ गया। प्रमिला कहती हैं कि जो सबसे अच्छी बात पता चली वो ये थी कि उन्हें अब तक खुद और बच्चों को भी भोजन कराने का सही तरीका ही नहीं पता था। परंतु जब संस्था के लोगों द्वारा ‘किचन-गार्डेन‘ के बारे में बताया गया और प्रेरित किया गया, तो उन्होंने और गांव के अन्य लोगों ने भी अपने-अपने घरों की छोटी सी बगिया में संस्था के सहयोग से तरह-तरह की शाक-सब्जी की खेती शुरू कर दी। आज उनके घरों में लहलहाती ‘पोषण-वाटिका‘ या ‘किचन-गार्डेन‘ ने उनकी जिंदगी में क्रांतिकारी बदलाव लाया है। ‘किचन-गार्डेन‘ में उगी सब्जियां, मसलन भिंडी, सेम, बोड़ा, मूली, साग, बैंगन, टमाटर, षलजम, गाजर, बीन्स, मटर, मिर्च आदि का इस्तमाल उनके बच्चों को स्वस्थ बनाने में काफी कारगर साबित हुआ है।

तिरंगा भोजन और न्यूट्रीमिक्स‘ से बच्चे हो रहे है स्वस्थ्य

बात-चीत के क्रम में ही वहां हंसते-खिलखिलाते, बालसुलभ उधम मचाते एक छोटे से बच्चे ने बरबस ही हमारा ध्यान अपनी ओर खींच लिया। पूछने पर पता चला कि बच्चे का नाम जोन्स मरांडी है। जोन्स की मां नथालिया कुडु ने हमें जो बताया वो वाकई काफी चैंकाने वाला और साथ ही सुकून देने वाला भी था। नथालिया ने बताया कि जब पहली बार जोन्स की जांच हुई तो पता चला कि वो कुपोषण का शिकार है। इस बात से चिंतित नथालिया ने पोषण शिविर में हिस्सा लिया और शिविर में बताई बातों का पालन करते हुए अपनी और अपने बच्चे की खान-पान की आदतों में बदलाव लाने का प्रयास किया। पहले जहां उनके भोजन में सिर्फ चावल और कुछ मौसमी सब्जियां ही होती थीं, वहीं अब उन्होंने भोजन में तीन रंगों का इस्तेमाल यानि तिरंगा भोजन करना सीख लिया है। बातों बातों में ही उन्होंने हमें ‘न्यूट्रीमिक्स‘ के बारे में बताया। ‘न्यूट्रीमिक्स‘ जिसे यहां की महिलाएं देसी हॉर्लिक्स भी बोलती हैं, अभिव्यक्ति फांउडेशन द्वारा विकसित एक ऐसा फूड सप्लीमेंट है, जिसे गांव में उपजने वाले अनाज से ही बनाया जाता है। ग्रामीण महिलाओं को शिविर में ‘न्यूट्रीमिक्स‘ बनाने की जानकारी भी दी गई और आज ये गांव के प्रत्येक घर में नजर आता है। इसके सेवन से बच्चे स्वस्थ व तंदुरूस्त भी बन रहे हैं। रहन-सहन और खान-पान की आदतों में आए इस बदलाव का ही नतीजा है कि आज जोन्स मरांडी बिल्कुल स्वस्थ है और उसे हंसता खेलता देख उसकी मां भी काफी प्रसन्न है।

कार्यक्रमों से ग्रामीणों में आया बदलाव

पोषण परियोजना के तहत लगातार चल रहे कार्यक्रमों का परिणाम है कि ना सिर्फ गांव की महिलाओं की सोच में बदलाव आया है, बल्कि बच्चों को खिलाने-पिलाने के उनके तौर-तरीकों में भी आमूल-चूल परिवर्तन आया है। बच्चों के ‘हेल्थ-मॉनिटरिंग‘ और समय-समय पर टीकाकरण को लेकर उनमें काफी जागरूकता आई है। परिणाम यह है कि परियोजना की शुरूआत में जहां 15 बच्चे अति कुपोषित थे, वहीं आज मात्र 3 या 4 बच्चे ही कुपोषित हैं। बाकी सभी बच्चे कुपोषण के अभिषाप से मुक्त होकर, ‘ग्रीन जोन‘ में आकर स्वस्थ जीवन जी रहे हैं। उनके और साथ ही उनकी माताओं के चेहरों पर खिली मुस्कान भारत के सुनहरे और स्वस्थ भविष्य की ओर इशारा करती हैं।

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