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गिरिडीह को साहित्यिक पहचान दे रहें है साहित्यकार डॉ छोटू प्रसाद चंद्रप्रभ

  • गिरिडीह की भाव का बयां करती नयी क़िताब……..आंचलिकता की ओर

वरिष्ठ पत्रकार नरेश सुमन की कलम से………………………
देश में अभ्रख नगरी के रूप में विख्यात गिरिडीह की पहचान अब साहित्यिक रूप से भी बनने लगी है। जी हां यह क्षेत्र एक अद्यतन आंचलिक उपन्यास की कमी जो झारखंड की हिंदी साहित्यिक पृष्ठभूमि को महसूस हो रही थी उसे काफी हद तक पूर्ण करने की जिम्मेदारी डॉ. छोटू प्रसाद चंद्रप्रभ की कलम ने उठाते हुए चंद्र के विविध चेहरे का सृजन कर दिखाया है। चंद्र के विविध चेहरे ग्रामीण जन जीवन की कुछ सुनी, कुछ देखी, कुछ झेली व्यथा की कथा का मनोवैज्ञानिक, समाजशास्त्रीय और दार्शनिक विश्लेषण का स्तुत्य प्रयास है।

डॉ छोटू प्रसाद चंद्रप्रभ ने अपने प्रांत झारखंड के गिरिडीह जिले के स्वातंत्र्योत्तर साँतवें दशक से दसवें दशक तक का कालखंड में हुए सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक व राजनैतिक परिवर्तन का शाब्दिक चित्रण किया है। कहा जाय तो प्रस्तुत उपन्यास एक ऐसा उपवन है, जहाँ नुकीले काँटे भी है और सुवासित सुमन भी, पुटुस, सेमल और पलास के पुष्प भी हैं तो चम्पा, चमेली और रातरानी की खुशबू भी। यह प्रतिनिधित्व करता है, समष्टिगत विश्लेषण करता है, भ्रमण कराता है सम्पूर्ण उपवन का, साक्षात कराता है इसके विविध पुष्पों के जीवन का, दर्शन का। उपन्यासकार का प्रस्तुत उपन्यास में अतीत को वर्तमान से जोड़ने और उज्ज्वल भविष्य की ओर उन्मुख करने का प्रयास रहा है जो उपन्यास की उपादेयता को बढ़ा देता है।

इस उपन्यास की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इस उपन्यास के पात्र न कोई राजनेता हैं, न अफ़सर। इसमें न कोई नायक-नायिका हैं, खलनायक-खलनायिका ही। अगर नायक-नायिका हैं तो गिरिडीह जिले का गांव है, यहां के लोग हैं, यहां के खेत-खलिहान तालाब-नदियां, गड्ढे-नाले, पेड़-पौधे, जंगल और पशु-परिंदे हैं। प्रस्तुत उपन्यास चार दशक 1960 ई. से 2000 ई. तक के चंद्रमारनी गांव के सफ़र की दास्तां है जो गिरिडीह जिले के समस्त गांवों का प्रतिनिधित्व करती है। उपन्यासकार ने रोजमर्रा की जरूरत की पूर्ति के लिए संघर्ष करते गांव के लोगों के जीवन का अत्यंत जीवंत चित्रण किया है। हमारे बाबा, परबाबा कैसे जी रहे थे और हम कैसे जी रहे हैं, मुख्यतः इन्हीं बातों का उपन्यासकार ने औपन्यासिक रुपांतरण किया है।

उपन्यास का आरंभ 1966 ई. के भयंकर सूखे की त्रासदी से होता है। अषाढ़-सावन में भी वर्षा नहीं होने के कारण नदी, तालाब-पोखरे सब क़रीब सूख चुके हैं। खेतों में धान के बिचड़े सूख चुके हैं। मडुआ, मकई आदि भदई फसल से किसान साल के कुछ महीने पेट पाल लेते थे, लेकिन इस बार इसकी भी उम्मीद ख़त्म हो चुकी है। औरत-मर्द सभी के चेहरे पर घोर उदासी छाई हुई है। उन्हें बाल-बच्चों और पालतू पशुओं के पेट पालने की चिंता उन्हें खाई जा रही है। भीषण गर्मी की वजह से धरती धूल बनकर उड़ रही है। गांव के किसान बारिश नहीं होने का कारण इंद्र भगवान की नाराज़गी मानते हैं। इसलिए वे हर गांव से चंदे इकट्ठे कर देवराज इन्द्र को खुश करने के लिए पूजा-पाठ व अखंड कीर्तन करते हैं, लेकिन बारिश नहीं होती है। भर वर्ष किसानों को अन्न संकट का सामना करना पडता है। संयुक्त बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री के.बी.सहाय की कांग्रेस सरकार के सहयोग के बावजूद हजारों गरीब किसान असमय काल कवलित हो जाते हैं। अन्न-जल अभाव में अनगिनत पशु-परिन्दे मर जाते हैं। साल भर के सभी पर्व-त्योहारों में कोई आनन्द-उत्साह नहीं रहता है। उपन्यासकार ने दुर्भिक्ष काल में गांवों की दशा का अत्यंत मार्मिक चित्रण किया है।

खेती-बारी, पशु-पालन, पेड़-पौधे व जंगल, पोखरे-तलाब, नदी-झरनों के प्रति ग्रामीणों के प्रेम व आस्था को उपन्यासकार ने बख़ूबी से दर्शाया है। पारिवारिक व सामाजिक मान मर्यादा, विपदा की घड़ी में एक दूसरे की मदद करना, सामाजिक उत्सवों में एक पांत में जमीन पर बैठकर खाना, पर्व-त्योहार मिल जुलकर मनाना, संध्याकाल में भजन-कीर्तन करना, सस्वर रामचरितमानस पढ़ना जैसी ग्रामीण जीवन शैली व गतिविधियों का यथार्थ चित्रण है प्रस्तुत उपन्यास।

उपन्यासकार ने उक्त कालखंड़ में प्रचलित भूत-प्रेत, डायन, झाड़ फूंक जैसे अंधविश्वासों, बेटों को अधिक पढ़ाना, उन्हें बिगाड़ना, बेटियां पराये घर चली जाती हैं, उन्हें पढ़ाना बेकार है जैसी गलतफहमियों का भी उल्लेख किया है। दो गोला, रामलीला, थियेटर, जैसे उस समय के लोकप्रिय मनोरंजन के साधनों के वर्णन से भी यह उपन्यास अछूता नहीं है।

प्रेमकथा हर काल में देखने को मिलती है। उन दिनों कैसे प्रेमी-प्रेमिका छूप-छूप कर मिला करते थे। कैसे एक दूसरे को चिट्ठियां लिखकर चुपके से पहुंचाते थे, इन बातों को भी दो अलग-अलग बिरादरी के चरित्र रधिया और किसन से जान सकते हैं। आशा और ओंकार का दिव्य प्रेम जो जीवन के अवसान तक विरह-वियोग में रहकर एक दूसरे की यादों में जीना उपन्यास की चरमोत्कर्ष दास्तां है। कैसे वर्णभेद की वकालत करने वाले दो सच्चे प्रेमियों के शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न का कारण बनते हैं, का भी उपन्यासकार ने मार्मिक चित्रण किया है। ढाई सौ पृष्ठों का आंचलिक उपन्यास श्चंद्र के विविध चेहरेश् उक्त कालखंड की जीवन-शैली का एक अच्छा आईना का काम करता है। इस आईने में हम गांवों की राजनीति, सामाजिक रीति-रिवाज, जड़ परम्पराऐं, विसंगतियां, कमियां और अच्छाइयां देख सकते हैं।

उपन्यास की लेखन कला की बात करें तो भाषा बहुत ही सरल और सहज है। क्षेत्र में बोली जानेवाली खोरठा भाषा का प्रयोग कई जगहों पर पाठक देख सकते हैं परंतु इसे कथानक की मांग कहना अतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए। उपन्यास की भाषा, छोटे-छोटे अनवरत चलने वाले संवाद, तत्कालीन समाज की रह रहकर सामने आती झाँकी और पूरे उपन्यास में लगातार चलते रहने वाले लोकगीतों के टुकड़े मंत्रमुग्ध सा कर देते हैं। गाँव की राजनीति,अंधविश्वास,जातिगत विद्रूपतायें.. उपन्यास में उभरकर आई हैं ।
अंजुमन प्रकाशन, प्रयागराज से प्रकाशित श्चंद्र के विविध चेहरेश् के रूप में लेखक की यह तीसरी प्रकाशित पुस्तक है और प्रथम आंचलिक उपन्यास। निष्कर्ष की पंक्तियों में कहा जाय तो श् चंद्र के विविध चेहरेश् आंचलिक उपन्यास के एक नये आदर्श मानक को संतुष्ट करने में पूर्ण सक्षम है। यह पुस्तक गुणी पाठकों को फणीश्वरनाथ रेणु की लोकप्रिय पुस्तक श् मैला आंचलश् की याद दिलाती है। यह पुस्तक ज्यों-ज्यों पुरानी होती जायेगी, त्यों-त्यों आगामी संतति हेतु इसकी उपादेयता और भी बढ़ती जायेगी। अंततः यह उपन्यास पठनीय के साथ-साथ संग्रहणीय भी है।

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