पोषण बगीचा व देसी हॉर्लिक्स से हुई एक क्रांतिकारी बदलाव की पहल
- गिरिडीह के बेंगाबाद प्रखंड के दुबराजपुर गांव में दिख रहा है बदलाव
- रंग ला रहा है डब्ल्यू एचएच के सहयोग से अभिव्यक्ति फाउंडेशन का प्रयास
- कैम्प का आयोजन कर ग्रामीणों के जीवन स्तर में लाया गया बदलाव
गिरिडीह। विकसित देशों की कतार में खड़ा होने को आतुर भारत के माथे पर कुपोषण एक ऐसा धब्बा है, जो कई वर्षों के अथक प्रयासों के बावजूद मिटाए नहीं मिटता। ये एक ऐसी समस्या है, जिसने अब तक ना जाने कितने मासूमों की जिंदगियां लील ली हैं। पर पिछले कुछ वर्षों में हालात में थोड़े बदलाव जरूर हुए हैं। सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं के लगातार प्रयासों से कई सकारात्मक परिवर्तन हुए हैं। आंकड़ों पर गौर करें तो 1990 की तुलना में 2017 में कुपोषण के कारण 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मौत के कुल मामलों में कमी आई है। वर्ष 1990 में यह दर प्रति एक लाख पर 2,336 थी, जो 2017 में घट कर प्रति एक लाख पर 801 पर आ गई है। इन आंकड़ों से कुछ संतोष तो किया जा सकता है, पर कुपोषण की वजह से एक बच्चे की मौत भी काफी दुखदायी है।
कई प्रयास के बाद दिखा बदलाव
उपरोक्त बदलाव यूं ही संभव नहीं हुआ है। इसके पीछे कई प्रयास हैं और इन प्रयासों से जुड़ीं रोचक कहानियां भी हैं। ऐसे ही एक प्रयास से रू-ब-रू होने हम चलते हैं झारखंड प्रदेश के गिरिडीह जिले के दुबराजपुर गांव। गिरिडीह जिले के बेंगाबाद प्रखंड में प्रकृति की गोद में बसा दुबराजपुर एक आदिवासी बहुल गांव है। पिछले कुछ महीनों से स्वयंसेवी संस्था अभिव्यक्ति फाउंडेशन द्वारा ‘वेल्टहुंगरहिल्फे‘ के सहयोग से इस गांव में ‘पोषण‘ कार्यक्रम चलाया जा रहा है। संस्था के लोग जब पहली मर्तबा इस गांव में पहुंचे और सर्वे किया तो पाया कि करीब 35 परिवारों वाले गांव में 10 परिवारों के 12 बच्चे अत्यंत कुपोषित हैं। इन कुपोषित बच्चों और उनके परिवारों को केन्द्र में रख कर यहां कार्यक्रमों की शुरूआत 15 दिनों के पीडी कैम्प से की गई। कैम्प में बच्चों के साथ-साथ उनके माताओं की भी स्वास्थ्य जांच की गई और उन्हें जागरूक करने के उद्देश्य से कई महत्वपूर्ण जानकारियां दी गईं।
जब इस गांव में पहुंचे तो वहां पर सुनीता बास्के, रोशी बेसरा, सूरजमुनि हांसदा, सरिता मरांडी, मोनो मरांडी, रीना हेम्ब्रोम, संगीता टुडु सहित गांव की कुछ अन्य महिलाओं से मुलाकात हुई। थोड़ी शुरूआती झिझक के बाद जब बात-चीत प्रारंभ हुई तो कई सुखद पर चैंकाने वाले तथ्य सामने आए। इन महिलाओं ने बताया कि पोषण कार्यक्रम के पूर्व या यूं कहें कि इस कार्यक्रम के तहत आयोजित 15 दिवसीय कैम्प के पहले उन्हें ये पता ही नहीं था कि खाने-पीने के भी कुछ तौर-तरीके होते हैं और खान-पान की आदतों में सुधार से ही बच्चों को शारीरिक और मानसिक तौर पर मजबूत बनाया जा सकता है।
12 बच्चों को चिन्हित कर किया गया था कैम्प का आयोजन
जिन 12 बच्चों को चिन्हित कर कैम्प का आयोजन किया गया, कैम्प के दौरान उनकी बेहतर देख-भाल की गई। इन बच्चों की माताओं को बताया गया कि खाने में ‘तिरंगा भोजन‘ ही इस्तेमाल करना चाहिए। साथ ही प्रायः सभी ग्रामीणों के घरों में उगने वाले अनाज का इस्तेमाल कर उन्हें ‘न्यूट्रीमिक्स‘ बनाने की ट्रेनिंग दी गई। आज ग्रामीण इस ‘न्यूट्रीमिक्स‘ को देसी हॉर्लिक्स कहते हैं क्योंकि इसके इस्तेमाल से उनके बच्चों के स्वास्थ्य में आश्चर्यजनक परिवर्तन आया है। इसका स्वाद भी इतना बढिया है कि बच्चे बड़े चाव से इसे खाते हैं।
महिलाओं ने बताया कि पहले उनके भोजन का मुख्य हिस्सा सिर्फ चावल ही होता था। साथ ही मौसम के अनुसार जो थोड़ी बहुत सब्जियां होती थीं, वे भोजन में उनका इस्तेमाल करती थीं। इस परियोजना के तहत संस्था के लोगों ने उन्हें ‘किचन गार्डेन‘ यानि घर में ही ‘पोषण वाटिका‘ के बारे में बताया और उच्च क्वालिटी के बीज व पौधे उपलब्ध करवा कर किचन गार्डेन लगवाया। आज इस किचन गार्डेन में प्रत्येक मौसम में तरह-तरह की शाक-सब्जियां उगाई जा रही हैं और रोज के खाने में उनका इस्तेमाल किया जा रहा है।
सरकारी सेवाओं को लाभ लेने के लिए ग्रामीणों को किया जा रहा जागरूक
सिर्फ इतना ही नहीं, बल्कि संस्था के लोग ग्रामीणों को और खास तौर पर महिलाओं को आंगनबाड़ी केन्द्र, और इस केन्द्र के माध्यम से सरकारी स्तर पर मिलने वाली विभिन्न स्वास्थ्य सेवाओं की जानकारी देने और उन सेवाओं का लाभ उठाने के लिए ग्रामीणों को जागरूक भी कर रहे हैं। महीनों के अथक परिश्रम का परिणाम है कि अब ग्रामीण महिलाएं आंगनबाड़ी केन्द्र जाकर अपने बच्चों का नियमित टीकाकरण करवा रही हैं। बच्चों को नियमित अंतराल पर कृमिनाशक दवा और खून की कमी से निपटने के लिए आयरन की गोलियां दी जा रही हैं। जागरूकता के अभाव में जो ग्रामीण महिलाएं पहले आंगनबाड़ी केन्द्र तक जा नहीं पाती थीं, आज वे सभी सरकारी सुविधाओं का उपभोग कर अपने जीवन को सुखद बनाने को उत्सुक हैं। खास कर गर्भवती और धातृ महिलाओं के जीवन में आमूल-चूल परिवर्तन आया है। सही खान-पान और ससमय उचित दवाइयों के उपयोग से स्वस्थ मां तो स्वस्थ बच्चे की परिकल्पना यहां साकार होती दिख रही है।
संस्था के लोगों के प्रयास से कुपोषण चक्र से बाहर निकल रहीं है ग्रामीण महिलाएं
ये ‘पोषण‘ परियोजना और इससे जुड़े संस्था के लोगों की सूझ-बूझ और अथक मेहनत का नतीजा है कि दुबराजपुर जैसे सुदूरवर्ती गांव की लगभग अनपढ़ महिलाएं कुपोषण चक्र के बारे में बड़े विस्तार से बात करने में सक्षम हैं। अब उन्हें ये भी पता है कि लड़कियों के लिए शादी की सही उम्र कम से कम 18 वर्ष या उससे अधिक है। 18 वर्ष की उम्र के बाद शादी होने और उचित खान-पान से ही एक स्वस्थ मां एक स्वस्थ बच्चे को जन्म दे सकती है। आज इस गांव में एक भी कुपोषित बच्चा नहीं है। जिन 12 कुपोषित बच्चों को चिन्हित कर इस परियोजना की शुरूआत की गई थी, उनमें से अधिकांश अब रेड जोन से या तो येलो जोन या फिर ग्रीन जोन में आ गए हैं। दुबराजपुर की पगडंडियों और खेतों-खलिहानों में हंसते-खिलखिलाते, स्वस्थ बच्चों को देखना एक ऐसा आनंददायी एहसास है, जिसे शब्दों में बयां करना संभव नहीं।