मात्र 0.1 प्रतिशत लाभ के लिए विदेशी कंपनियां कर रही है लाखों ढिबरा श्रमिकों का शोषण
- रेस्पोंसिबल माइका इनिशिएटिव (फ्रांस) द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट से हुआ खुलाशा
- कंपनियों के निशाने पर है झारखंड और बिहार के लाखों ढिबरा श्रमिक
गिरिडीह। मात्र 0.1 प्रतिशत का लाभ बचाने के लिए माइका उद्योग से जुड़ी विदेशी कम्पनीयाँ झारखंड और बिहार के लाखों ढिबरा श्रमिकों का शोषण कर रही है। हाल ही में उपलब्ध हुई एक विश्वसनीय शोध आधारित रिपोर्ट के अनुसार माइका उद्योग से जुड़ी विदेशी कम्पनीयाँ मात्र 0.1 प्रतिशत का लाभ बचाने के लिए लाखो ढिबरा श्रमिकों की जिन्दगी से खिलवाड़ और भारी फर्जीवाड़ा कर रही है । हाल ही में, रेस्पोंसिबल माइका इनिशिएटिव (फ्रांस) द्वारा प्रकाशित इस नई रिपोर्ट के अनुसार ढिबरा उद्योग से जुडे श्रमिकों की पारिवारीक आय वर्षे 2021-2022 में औसतन 2800 रूपये से 4200 रूपये मासिक रही जो की वैधानिक रूप से प्रस्तावित प्रासंगिक न्यूनतम मजदूरी का आधा 50 प्रतिशत भी नहीं है।
साथ ही साथ, ये रेस्पोंसिबल माइका इनिशिएटिव (फ्रांस) द्वारा प्रकाशित लिविंग इनकम जो कि लगभव 15000 रुपये प्रति माह निर्धारित की गई है, की तुलना में उसका 20 प्रतिशत भी नहीं है। इस आधार पर ऐसा प्रतीत होता है की ऐसे में ढिबरा श्रमिकों को अपने अधिकारों को पाने के लिए अभी एक लम्बा संघर्ष तय करना पड़ेगा।
इस रिपोर्ट पर प्रक्रिया लेने हेतु विभिन्न गैर सरकारी संगठनो, और श्रमिक संगठनों से जब इस विषय पर चर्चा की गई तो सामने आया की इस अनुसंधान आधारित रिपोट में एक महत्वपूर्ण त्रुटी है, जिसके अन्तर्गत लिविंग इनकम-आय गणना इस परिकल्पना के आधार पर की गई है कि हर ढिबरा श्रमिक लगभग 18 माह ढिबरा प्रति दिन चुने। ढिबरा श्रमिकों से जुडी सामाजिक सेवा संस्थानों के अनुसार यह परिकल्पना ही त्रुटिपूर्ण है क्योकी ढिबरा कब, कहाँ, और किस गुणवता का मिलेगा ये कहना अत्यन्त मुशकिल है, इसलिए इस लिविंग इनकम की अवधारणा कम कर के आंकी गई है, ताकि वैश्विक उपभोक्ताओं की नज़र में विदेशी कम्पनियाँ द्वारा एक बेहतर छवि बनाकर अपना माल और अधिक मूल्यों पे बेचा जा सके। रिपोर्ट में दर्शाये गए तथ्यों से ऐसा भी प्रतीत होता है की वास्तव में ये प्रक्रिया, बंधुआ मजदूरी करवाने की एक नई सोची समझी साजिश से लिप्त एक विकृत सोच को जन्म देगी, ताकि अधिक कमाई लेने के लालच में ढिबरा श्रमिकों को अभ्रक की खानों की गहराइयों में धकेला जा सके, और उनकी जिंदगियों से खेला जा सके। ये साजिश न केवल ढिबरा श्रमिको, अपितु झारखण्ड एवं बिहार के कुटीर ढिबरा उद्योग के लिए भी अत्यन्त हानिकारक सिद्ध होगी।
इस रिपोर्ट के आधार पर हुई बातचीत के अनुसार कुछ श्रमिक संगठनों का कहना है कि वो इस बाबत रेस्पोंसिबल माइका इनिशिएटिव (फ्रांस) और इससे जुडी कम्पनीयों को औपचारिक तौर पर पत्र लिखकर इस बात का जवाब मांगेगी की-वह अबतक ढिबरा मजदूरों को प्रासंगिक न्यूनतम वैधानिक आय क्यों उपलब्य नही करवा पा रही है? श्रमिक संगठनों का कहना है कि, वह सम्बंधित श्रम विभाग और भारत सरकार को भी पत्र लिख कर इस रिपोर्ट का जल्द से जल्द संज्ञान लेने का आग्रह करेगी, और मालिकों, ठेकेदारों और कंपनियों को जरूरी कानूनी नोटीस जारी करने के लिए प्रयासरत रहेंगे।
वहीं दूसरी और, विभिन्न गैर सरकारी समाजसेवी संस्थाओ का कहना है कि रेस्पोंसिबल माइका इनिशिएटिव द्वारा इस कागजी लिपापोती से बचना चाहिए, और तुरन्त प्रभाव से इस बात पर कार्य करना चाहिए की विदेशी कम्पनियों द्वारा ढिबरा श्रमिकों की मजूदरी से कोई छेडछाड़ न की जाए और उन्हें कम से कम अन्य प्रासंगिक श्रमिक वर्ग में तय मजदूरी अवश्य उपलब्ध करवाई जाए।
श्रमिक संगठनों ने कहा की मज़दूरों के वेतन को कोई भी मालिक एक तरफ़ा तय नहीं कर सकता, बल्कि मज़दूरों, और मज़दूर यूनियन के साथ परामर्श करना इस प्रक्रिया का एक वैधानिक चरण है। दुर्भाग्यपूर्ण रूप् से, रेस्पोंसिबल माइका इनिशिएटिव द्वारा लिविंग इनकम तय करने की इस प्रक्रिया में किसी भी ट्रेड यूनियन को सम्मिलित नहीं किया गया, जो की रेस्पोंसिबल माइका इनिशिएटिव की एक पूंजीवादी मानसिकता को दर्शाता है।
श्रमिक संगठनों का ये भी कहना है कि, यदि कम्पनीयाँ वास्तव में इस रिपोर्ट के लिए गंभीर है तो उन्हें इन ढिबरा श्रमिकों तुरंत प्रभाव से व्यक्तिगत रूप में लिखित अनुबंध उपलब्ध करवाना चाहिए जिस में इनको मिलने वाली प्रतिदिन आय, मासिक आय, कार्य का समय, एंव अन्य काम की परिस्थति और सामिजिक सुरक्षा के नियमों का पूरी स्पष्ट तरह से उल्लेख हो।
मात्र 0.1 प्रतिशत अधिक लाभांश कमाने का ये लोभ आधारित खेल और कितने ढिबरा श्रमिकों, उनके परिवारों और मासूम बच्चों को इसी तरह सब्जबाग ़दिखाता रहेगा, और इनके मासूम सपनों को यूँ ही कुचलता रहेगा। अब ढिबरा श्रमिकों से जुड़े इस सवाल को मुख्यधारा का सवाल बनाना जरूरी है, तथा कमजोर श्रमिक वर्ग की आवाज को कुचलने में लगी ऐसे अवास्तविक और हवा में हुए शोध पर आधारित गढ़े झूठे आख्यानों से लड़ना बेहद जरूरी है।