हालिया चुनौतियों से थकी नहीं मगर हांफ रही हैं ममता बनर्जी
एक समय ममता बनर्जी के शब्द पार्टी में होते थे लकीर, अब आया बगावत का जलजला
कोलकाता। पूरे कॅरियर में चुनौतियां झेलने वाली ममता बनर्जी के जीवन में अब एक जलजला सा आया है। पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा से मिलने वाली चुनौतियों और पार्टी में लगातार तेज होती बगावत से ममता अपने ही किले में घिरती जा रही हैं। सरकार और पार्टी में जिस नेता की बात हाल के कुछ दिनों तक पत्थर की लकीर साबित होती रही हो, उसके खिलाफ अब तीखे स्वर सुने जा रहे हैं। कभी कांग्रेस की अंदरूनी चुनौतियों से जूझते हुए यही ममता बनर्जी ने अलग पार्टी बनाया और लेफ्ट से दो-दो हाथ किया, लेकिन वही ममता हाल की चुनौतियों से निपटने की रणनीति बनाने में जुटी हैं। वह थकी हुई नहीं दिखतीं, लेकिन हांफ जरूर रही हैं।
बीते तीन-चार सालों में ममता बनर्जी की पकड़ अपनी ही पार्टी में कुछ कमजोर हुई है। हालांकि इससे पहले पार्टी में किसी नेता की इतनी हिम्मत नहीं थी कि उनके किसी फैसले पर अंगुली उठा सके। लगभग दस साल तक सत्ता में रहने के बाद नेताओं में कुछ असंतोष औऱ नाराजगी तो जायज है, लेकिन भाजपा ने बीते लोकसभा चुनाव के वक्त से जिस तरह आक्रामक रुख अपनाया है और पार्टी के नेताओं को अपने पाले में खींचा है, वह ममता के लिए गंभीर चुनौती है।
मालूम हो कि पिछले लोकसभा चुनाव नतीजों के बाद ममता ने चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर की सेवाएं ली थीं। लेकिन, उनका ये पासा भी अब तक उल्टा ही पड़ता नजर आ रहा है। प्रशांत को समाधान के लिए लाया गया था मगर वे पार्टी के लिए समस्या ही बनते गये। ऐसा लगता है कि कई नेताओं के पार्टी छोड़ने और पार्टी के भीतर फैलते असंतोष के पीछे मूल कारण प्रशांत किशोर ही बन गए हैं। बावजूद इसके ममता ने प्रशांत को लेकर उभरे संकट पर डैमेज कंट्रॉल की कोशिश नहीं की।
प्रशांत किशोर ने ममता और उनकी सरकार की छवि चमकाने के लिए कई रणनीति बनायी। रणनीति के तहत बीते साल ‘दीदी के बोलो’ नामक अभियान शुरू किया गया। अभियान के तहत कोई भी नागरिक सीधे फोन पर अपनी समस्या बता सकता था। उसके अलावा विभिन्न सरकारी योजनाओं में कट मनी लेने वाले नेताओं पर कार्रवाई की गई। इसके जरिए यह संदेश देने का प्रयास किया गया कि कुछ नेता पार्टी और सरकार की छवि धूमिल कर रहे हैं। प्रशांत की सलाह पर ही संगठन में बड़े पैमाने पर फेरबदल किये गये औऱ दागी छवि वाले नेताओं को दरकिनार कर नये चेहरों को सामने लाया गया। मगर, पार्टी में मची भगदड़ इस बात का संकेत है कि तृणमूल में अंदरखाने सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है।
फिलहाल ममता बनर्जी को कई मोर्चो पर जूझना पड़ रहा है। पहले तो राजनीतिक मोर्चे पर भाजपा की ताकत और संसाधनों से मुकाबला उनके लिए कठिन चुनौती है। भाजपा ने अगले चुनावों में जीत के लिए अपनी पूरी ताकत और तमाम संसाधन बंगाल में झोंक दिये। आधा दर्जन से ज्यादा केंद्रीय नेताओं और मंत्रियों को बंगाल का जिम्मा सौंप दिया गया है। दूसरी ओर, प्रशासनिक मोर्चे पर भी ममता की मुश्किलें लगातार बढ़ रही हैं। हालांकि केंद्र के दबाव के बावजूद ममता ने उनको दिल्ली नहीं भेजा। उसके बाद तीन वरिष्ठ आईपीएस अफसरों को जबरन केंद्रीय डेपुटेशन पर जाने का निर्देश दिया गया है। इस मुद्दे पर भी टकराव जारी है।
राज्यपाल जगदीप धनखड़ भी कानून-व्यवस्था समेत विभिन्न मुद्दों पर सरकार पर ताबड़तोड़ हमले में जुटे हैं। लेकिन, ममता के लिए सबसे बड़ी मुश्किल ऐसे नेताओं ने खड़ी की है जो कल तक उनके सबसे करीबी लोगों में शुमार किए जाते थे। इनमें सबसे पहले तो मुकुल रॉय ने भाजपा का दामन थामा था जिनको राज्य के खासकर ग्रामीण इलाकों में टीएमसी की जड़ें जमाने का वास्तुकार माना जाता है। उसके बाद भी बीते दो साल के दौरान बैरकपुर के ताकतवर नेता और अब बीजेपी सांसद अर्जुन सिंह समेत इक्का-दुक्का नेता बगावती अंदाज अपनाते रहे। अब विधानसभा चुनाव जब सिर पर है तो थोक भाव में मची भगदड़ ने एक गंभीर समस्या पैदा कर दी है। हालांकि इस भगदड़ के बावजूद ममता बहादुरी से मोर्चे पर डटी हैं।
तृणमूल कांग्रेस में भगदड़ से उपजी परिस्थिति पर विचार करने और इसकी काट की रणनीति तैयार करने के लिए ममता बनर्जी ने शुक्रवार शाम को अपने आवास पर शीर्ष नेताओं के साथ आपात बैठक की। इस बैठक में ममता का कहना था कि हमारी ताक़त आम लोग हैं, नेता नहीं। दलबदलू नेताओं के पार्टी छोड़ने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा। ऐसे लोग पार्टी पर बोझ थे, आम लोग ही उनके विश्वासघात की सजा देंगे। बंगाल के लोग विश्वासघातियों को पसंद नहीं करते। बैठक में मौजूद टीएमसी के एक वरिष्ठ नेता बताते हैं कि ममता ने तमाम नेताओं को सरकार के दस साल के कामकाज के साथ आम लोगों के बीच जाने का निर्देश दिया है।
बीते एक सप्ताह के दौरान अपनी तमाम रैलियों में ममता कहती रही हैं कि पार्टी छोड़ कर जाने वालों के लिए दरवाजे खुले हैं। सत्तालोलुप नेता आम लोगों की बजाय हमेशा अपनी भलाई के बारे में ही सोचते हैं। उनके रहने या जाने से कोई अंतर नहीं पड़ेगा। टीएमसी में मची भगदड़ के लिए ममता भले ही पानी पी-पी कर भाजपा को कोस रही हों, विपक्षी नेताओं और राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि बंगाल में दलबदल की परंपरा को ममता ने ही बढ़ावा दिया था। अब एक दशक बाद इतिहास खुद को दोहरा रहा है। ममता आरोप लगाती रही हैं कि भाजपा के नेता टीएमसी के नेताओं को केंद्रीय एजेंसियों का डर दिखा कर दल बदलने के लिए मजबूर कर रहे हैं।
पश्चिम बंगाल के कांग्रेसियों का कहना है कि इतिहास खुद को दोहराता है और अब ममता को उनकी ही भाषा में जवाब मिल रहा है। कांग्रेस के गढ़ रहे मालदा और मुर्शिदाबाद में कई विधायकों और नेताओं को झूठे मामलों में फंसाने की धमकी देकर टीएमसी में शामिल होने पर मजबूर किया गया था। उस समय दल बदलने वाले कई लोग अब भाजपा में चले गए हैं। मालूम हो कि वर्ष 2011 में टीएमसी के सत्ता में आने के बाद से मानस भुइयां, अजय डे, सौमित्र खान, हुमायूं कबीर और कृष्णेंदु नारायण चौधरी समेत कई कांग्रेस नेता टीएमसी के खेमे में शामिल हो चुके हैं। उनमें से कुछ को मंत्रिमंडल में शामिल किया गया तो कुछ को सांसद बनाया गया। इसी तरह छाया दोलुई, अनंत देब अधिकारी, दशरथ तिर्की और सुनील मंडल जैसे लेफ्ट के नेता भी टीएमसी का हिस्सा बन चुके हैं।
पश्चिम बंगाल विधानसभा में लेफ्ट के नेता सुजन चक्रवर्ती कहते हैं कि ममता की पार्टी ने वर्ष 2011 में सत्ता में आने के बाद ही यह खेल शुरू किया था। उसके बाद विभिन्न वाम दलों के कई विधायक टीएमसी में जा चुके हैं। लेकिन मंत्री और तृणमूल कांग्रेस की वरिष्ठ नेता चंद्रिमा भट्टाचार्य कहती हैं कि अपने वजूद के लिए जूझ रहे राजनीतिक दल भी ऐसे निराधार आरोप लगा रहे हैं। ममता शुरू से ही आम लोगों के लिए काम करती रही हैं और आगे भी करती रहेंगी। ऐसे में दो-चार नेताओं के पार्टी छोड़ने से कोई अंतर नहीं पड़ेगा।