अपने प्रयासों से ही ग्रामीणों ने बदल दी आंगनबाड़ी केन्द्र की सूरत
- सामूहिक पोषण वाटिका से लड़ रहे कुपोषण से जंग
- पटवन के लिए हैंड पंप के वेस्ट पानी का हो रहा इस्तेमाल
- पोषण के लिए तिरंगा भोजन व कड़कनाथ मुर्गों और अंडों का सेवन
गिरिडीह। मेरे चारों ओर हरियाली ही हरियाली है। मेरी दरो-दीवारें बिल्कुल दुरूस्त और रंगीन हैं। मेरे आंगन में गांव के बच्चे जब किलकारियां भरते, हंसते मुस्कुराते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि यहां का भविष्य निश्चय ही काफी अच्छा, स्वस्थ और सुखी होने वाला है। अब आप सोच रहे होंगे कि मैं भला हूं कौन ? मैं झारखंड प्रदेश के गिरिडीह जिले के गांडेय प्रखंड के सुदूरवर्ती गांव हरलाडीह का आंगनबाड़ी केन्द्र हूं। पर आज मैं जैसा दिख रहा हूं, पहले मेरी हालत ऐसी नहीं थी। वर्ष 2018 तक मैं काफी बदहाल था। पर इसी दरम्यान स्वयंसेवी संस्था अभिव्यक्ति फाउंडेशन ने ‘वेल्टहंगरहुल्फे‘ के सहयोग से हरलाडीह में पोषण परियोजना की शुरूआत की और प्रारंभिक दौर की कुछ परेशानियों को छोड़ दिया जाए तो धीरे-धीरे यहां काफी बदलाव होने लगा, जिसकी शुरूआत मुझसे ही हुई।
संस्था के कर्मठ व समर्पित कार्यकर्ताओं के अथक प्रयासों का ही नतीजा था कि गांव के लोग एकजुट हुए और मेरे परिसर की साफ-सफाई कर यहां एक पीडी कैम्प का आयोजन किया गया। पीडी कैम्प में जब बच्चों की जांच की गई तो गांव के करीब 20 बच्चे कुपोषित पाए गए। उन बच्चों को कुपोषण के कुचक्र से बाहर निकालने की कवायद शुरू हुई और आंगनबाड़ी केन्द्र के परिसर में खाली पड़ी जमीन पर ही एक सामूहिक किचन गार्डेन लगाने का फैसला हुआ। ग्रामीणों ने खुद श्रमदान कर ना सिर्फ मेरे परिसर की साफ-सफाई की बल्कि जमीन को शाक-सब्जी उपजाने योग्य बनाया। मेरे गांव के लोगों ने पटवन के लिए एक अनोखी और शानदार तरकीब निकाली। किचन गार्डेन में पटवन के लिए यहां लगे चापाकल के उस पानी का उपयोग किया जाने लगा, जो पहले बर्बाद हो जाता था। इतना ही नहीं, किचन गार्डेन के अंदर ही ग्रामीणों ने एक छोटे डोभा का निर्माण किया है, जिसमें चापाकल का पानी फिल्टर होने के बाद जाता है। इस डोभा में ग्रामीण सफलतापूर्वक मछली पालन भी कर रहे हैं। आज किचन गार्डेन में तरह-तरह की शाक-सब्जियां उगाई जा रही हैं, जिनका सेवन कर ना सिर्फ बच्चे, बल्कि गर्भवती और धातृ महिलाएं भी स्वस्थ जीवन शैली अपना रही हैं।
मैं इस बात का गवाह हूं कि लगातार होने वाले कार्यक्रमों की वजह से आज हरलाडीह के ग्रामीणों के रहन-सहन और खान-पान की आदतों में काफी बदलाव आया है। 15 दिवसीय कैम्प में विशेषज्ञों द्वारा ग्रामीणों को बच्चों के टीकाकरण के बारे में जो जानकारी दी गई, उसका ही नतीजा है कि आज मेरे गांव के लोग मेरे ही आंगन में बच्चों का नियमित टीकाकरण करवा रहे हैं। कैम्प के दौरान ही महिलाओं को स्थानीय तौर पर उपजने वाले अनाज के उपयोग से बनने वाले न्यूट्रीमिक्स को बनाने की ट्रेनिंग भी दी गई। ये काफी सुखद आश्चर्य है कि अपने गांव में उपजने वाले घरेलू अनाज से बनने वाला न्यूट्रीमिक्स पोषण के दृष्टिकोण से किसी भी बड़े ब्रांड के उत्पाद से किसी भी हालत में कमजोर नहीं है। आज गांव की महिलाएं अपने-अपने घरों में ही न्यूट्रीमिक्स बना कर बच्चों को खिला रही हैं।
पोषण परियोजना के तहत ही एक अभिनव प्रयोग करते हुए संस्था के लोगों ने कुछ ग्रामीणों को विश्व प्रसिद्ध कड़कनाथ मुर्गा दिया। कड़कनाथ मुर्गा को कई ग्रामीणों के घरों में खेलते हुए देखा जा सकता है। इस कड़कनाथ ने काफी अंडे दिए, जिनका सेवन कर ग्रामीण बच्चे स्वस्थ हो रहे हैं। इतना ही नहीं, कई ग्रामीणों ने तो अंडो को बेचने का व्यवसाय भी प्रारंभ कर दिया है, जिससे उनकी माली हालत में काफी सुधार देखने को मिल रहा है।
सामूहिक किचन गार्डेन के साथ-साथ ग्रामीणों ने अपने घरों में भी किचन गार्डेन या पोषण-वाटिका लगाई है और थोड़े से श्रम से ही बड़े आराम से इस वाटिका में हरी सब्जियां, बैंगन, टमाटर, गाजर, मूली, पालक आदि उपजा रहे हैं। किचन गार्डेन लगाने और उसके रख-रखाव के लिए संस्था की ओर से ग्रामीणों को कुदाल, खुरपी, टोकरी आदि भी मुहैया कराई गई है। जिन ग्रामीणों के पास कुछ अधिक जमीन है, उनके यहां आम, अमरूद, शरीफा सरीखे फलदार पेड़ भी लगाए गए हैं, जिनमें से कुछ ने तो अब फल देना शुरू भी कर दिया है। पोषण परियोजना के तहत चलने वाले कार्यक्रमों का ही परिणाम है कि ग्रामीणों और खासकर महिलाओं की आदतों में भी काफी परिवर्तन देखने को मिल रहा है। जो सबसे बड़ा बदलाव है, वह है स्वच्छता के प्रति जागरूकता। गांव के अधिकांश लोग अब साबुन से हाथ धोकर ही खाना खाते हैं। संस्था द्वारा दिए गए वाश किट का ग्रामीण लगातार और बेहतर उपयोग कर रहे हैं। पीने के पानी की साफ-सफाई का भी ध्यान रखा जा रहा है। लोग पीने के लिए मटका फिल्टर के पानी का ही उपयोग कर रहे हैं। एक सबसे बड़ी बात जो मैं आप सबों को बताना चाहता हूं, वो यह है कि पहले घर के लोग और खास कर महिलाएं बच्चों को अपने साथ ही भोजन कराती थीं। संस्था के लोगों ने उन्हें बार-बार समझाया कि बच्चों को खिलाने का ये तरीका सही नहीं है और इससे उन्हें उचित खुराक नहीं मिलती है। अब जाकर महिलाओं की समझ में ये बात आ गई है और वे अपने बच्चों को अलग से भोजन कराने लगी हैं। इन तमाम प्रयासों के सुखद परिणाम भी सामने हैं। पहले जहां मेरे गांव के करीब 20 बच्चे कुपोषित थे और उनमें भी अधिकांश रेड जोन में थे, वहीं कुछ ही महीनों के बाद आज मात्र 3 या 4 बच्चे ही कुपोषित हैं और वे भी अब रेड जोन में नहीं बल्कि येलो जोन में आ गए हैं। एक और बदलाव जो मैंने महसूस किया है, वो है तिरंगा भोजन के प्रति जागरूकता। यानि जो ग्रामीण पहले सिर्फ पेट भरने के लिए ही खाना खाते थे, वे अब अपने भोजन में सफेद, हरा और पीला, यानि चावल-रोटी, दाल और हरी सब्जी, इन तीनों का इस्तेमाल करना सीख गए हैं।
मेरे ही गांव के स्वस्थ बच्चे जब मेरे आंगन में खेलते-कूदते हैं तो ऐसा लगता है मानो इन बच्चों के रूप में ईश्वर का साकार स्वरूप मेरे अंगने में, गांवों की गलियों में, खेतों की पगडंडियों में दौड़ रहा है, खेल रहा है, निर्मल अटखेलियां कर रहा है। मैं सौभाग्यशाली हूं कि मैं हरलाडीह का आंगनबाड़ी केन्द्र हूं।